चिंतन के बाज़ार


 

ये कोई उपदेश नहीं हैं

ना आदर्शों का जाला,

चिंतन के बाज़ार गर्म यूँ

भटका जित भोला-भाला ,

पाप-पुण्य का ज्ञान तुम्हें इस

जग में सबसे ज़्यादा है

मुझपे मदिरा की दो बूँदें

तुम पर पूरी मधुशालाI

-पीयूष यादव

 

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मैं ढूँढ रहा वो मधुशाला


ऐसी मदिरा जिसमें खुद को

ढूँढ सके पीनेवाला,

साकी जो मद्धम-सी कर दे

तीव्र वेदना की ज्वाला ,

मतवाले औ’ मदिरालय में

अंतर मुश्किल हो जाये,

ऐसी साख जहाँ हो सखि मैं,

ढूँढ रहा वो मधुशालाI

-पीयूष यादव

 

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असमंजस में..


आसक्ति में और ना कुछ बस

छिपी अश्रुओं की हाला,

पर एकाकी जीवन तो है

मधु से रीता इक प्याला,

सन्नाटे औ’ कोलाहल में

इसे चुनूँ या उसे चुनूँ,

भीतर मूक तमा है भीषण

बाहर बहकी मधुशालाI

-पीयूष यादव

मूक तमा – चुप अँधेरा

 

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जीवन, मृत्यु-कलश और गंगा


गंगा का आकर्षण अक्सर अंतिम चौखट तक साथ देता है. ये अद्भुत है.

संसृति के नियमों में सिर्फ आकर्षण ही स्थायी है..ज़िन्दगी का क्रम तो चलता रहता है. जहाँ आज मैं हूँ, कल कोई और होगा. जो भाव मेरे मन में हैं, कल किसी और के मन में होंगे ..

 

गंगा के पावन तट पर इक

मीठी कॉफ़ी का प्याला,

सुरसरिता का आकर्षण औ’

उस पर श्रद्धा की हाला,

मुझको ये आकर्षण कल फिर

गंगा तट तक लायेगा

तब विस्मित दूर वहाँ होगा

मैं नित बहती मधुशालाI

-पीयूष यादव

 

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