March 30th, 2013
पाना चाहा ब्रह्म मगर फिर
हाथ लगी केवल माला,
बना नमाज़ी पर न कभी भी
मिल पाया अल्ला ताला,
मादकता ने भेद मुझे ये
रात बज़्म में बतलाया,
मदिरा प्याले साधन हैं खुद
नहीं प्रिये ये मधुशालाI
-पीयूष यादव
बज़्म – महफ़िल
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December 12th, 2009
ऋषिकेश में गंगा को बहता देखकर लगता है कि कितने प्यासे रहे होंगे ये गंगा के किनारे … हरे-भरे शिवालिक पर्वत साकी से लगते हैं और तृष्णा से व्याकुल उन किनारों की प्यास बुझाती गंगा, मधुशाला सी नज़र आती है.
बेसुध आज लुटाती देखी
सकल सुमोहित मधुहाला,
फिर यौवन के साथ बहे कल
विस्मित है पीनेवाला,
घोर तृषित ये साहिल ऐसे
जिनकी प्यास बुझाने को,
साकी हैं शादाब शिखर औ’
निर्मल गंगा मधुशालाI
-पीयूष यादव
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