जीवन, मृत्यु-कलश और गंगा


गंगा का आकर्षण अक्सर अंतिम चौखट तक साथ देता है. ये अद्भुत है.

संसृति के नियमों में सिर्फ आकर्षण ही स्थायी है..ज़िन्दगी का क्रम तो चलता रहता है. जहाँ आज मैं हूँ, कल कोई और होगा. जो भाव मेरे मन में हैं, कल किसी और के मन में होंगे ..

 

गंगा के पावन तट पर इक

मीठी कॉफ़ी का प्याला,

सुरसरिता का आकर्षण औ’

उस पर श्रद्धा की हाला,

मुझको ये आकर्षण कल फिर

गंगा तट तक लायेगा

तब विस्मित दूर वहाँ होगा

मैं नित बहती मधुशालाI

-पीयूष यादव

 

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3 Comments, Comment or Ping

  1. nice

    December 24th, 2009

  2. पीयूष जी, अच्छे भाव हैं “मैं नित बहती मधुशाला”अंतिम पंक्ति बहुत अच्छी लगी.बधाई

    December 28th, 2009

  3. पीयूष जी, गंगा के आकर्षण की व्याख्या के लिए तो शब्द बने ही नहीं….
    आपने गंगा के प्रति अपने ह्रदय के जो उदगार व्यक्त किये हैं , पढ़ कर अच्छा लगा.

    January 22nd, 2010

Reply to “जीवन, मृत्यु-कलश और गंगा”

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