ऋषिकेश में गंगा को बहता देखकर लगता है कि कितने प्यासे रहे होंगे ये गंगा के किनारे … हरे-भरे शिवालिक पर्वत साकी से लगते हैं और तृष्णा से व्याकुल उन किनारों की प्यास बुझाती गंगा, मधुशाला सी नज़र आती है.
बेसुध आज लुटाती देखी
सकल सुमोहित मधुहाला,
फिर यौवन के साथ बहे कल
विस्मित है पीनेवाला,
घोर तृषित ये साहिल ऐसे
जिनकी प्यास बुझाने को,
साकी हैं शादाब शिखर औ’
निर्मल गंगा मधुशालाI
-पीयूष यादव
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3 Comments, Comment or Ping
बहुत ख़ूब जनाब…….वाकई, ऋषिकेश में गंगा को बहते हुए देखने का नज़ारा अद्भुत है. इतना मनमोहक जैसे साक्षात मधुशाला…..
December 15th, 2009
बहुत खूब लिखा है..जो यौवन के होने न होने के प्रति निष्पक्ष है….वही चिर युवा है…ऐसा यौवन निर्मल ही होगा..
December 17th, 2009
सोचा नहीं था एक कवी से दोस्ती होगी, मज़ा आया आपकी कवितायेँ सुनकर..
October 6th, 2012
Reply to “गंगा”