नए बहाने ढूँढ रही..


समय रहा, पर वक़्त कहाँ था,

पारस कहीं लुटा डाला,

बाती जल-जल क्षीण हुई तो

छाया फिर से तम काला,

पहले बैठी थी आकुल-सी

आहट पर ही आ जाए,

नए बहाने ढूँढ रही अब

ना मिलने के मधुशालाI

-पीयूष यादव

 

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3 Comments, Comment or Ping

  1. rg

    कमाल का लिखा है!

    November 9th, 2009

  2. pareekshit

    इंसान तर्रक्की करता है क्योंकि वो प्रगतिशील रहता है, प्रयतन करता रहता है! साथ ही यह भी सच है की इंसान ही प्रगति का दायरा सिमित कर देता है… लेकिन मुख्य बात यह है की वो प्रगति को फिर से प्रगतिशील कब और कैसे बनता है!
    बहुत खूब पीयूष! आपका प्रयतन इस वेबसाइट को बनाने का, मधुशाला को पुनर्जीवित करने का या कहे मधुशाला को प्रगतिशील करने का, बहुत ही नेक और सराहनिए है! हम सब आपके बहुत ही आभारी है!
    शिवानी & परीक्षित

    November 11th, 2009

  3. naveli

    @ शिवानी, परीक्षित, Rg
    शुक्रिया..

    November 14th, 2009

Reply to “नए बहाने ढूँढ रही..”

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